निस्तब्धता

“निस्तब्धता”

बेटों ने चलने फिरने और बोलने में असमर्थ अपने पापा रिटायर्ड मेजर को अस्पताल से छुट्टी मिलते ही घर के एक कमरे में फर्श पर गद्दा लगा दिया और नेपाली नौकर को कहा, “इनका पूरा ख्याल रखना। हमें कोई शिकायत ना मिले।”

छोटे बेटे की नई शादी हुई थी। उसने हनीमून व गर्मियाँ बिताने के लिए स्विट्जरलैंड जाने का प्रोग्राम बनाया और चला गया।

बाद में दूसरे बेटे ने कनाडा एवं यू एस में और तीसरे ने रूस में छुट्टियाँ व्यतीत करने के प्रोग्राम बना कर निकल गए। जाते जाते नौकर को एक फोन देते हुए चेतावनी दी, “हमारी दो माह के बाद वापसी होगी। तुम पापा का पूरा ख्याल रखना, समय पर खाना, दूध और दवाएँ देना। पापा को तनिक भी परेशानी नहीं होनी चाहिए।”

नौकर ने सहज सहमति दे दी और वे सभी चले गए।

वे जहाँ भी जाते, आवश्यकता पड़ने पर हर जगह अपना परिचय मेजर के बेटे होने से शुरु करते और अपने पापा के साहस की कहानियाँ सुनाते …….

इधर बूढ़ा अपाहिज पिता अकेला घर के कमरे में लेटा साँसे लेता रहा। जजवह ना चल सकता था। ना स्वयं से कुछ माँग सकता था। नौकर 24 घण्टों उनके पास ही रहता और समय से भोजन, पानी, दूध, दवा आदि देता रहता।

एक महीना बीत गया। इस बीच नौकर के पास पापा का हाल जानने के लिये किसी बेटे का कोई फोन नहीं आया। अपनी जिम्मेदारियों से बचने व छुट्टियों के खराब होने के डर से सभी स्वयं को छोड़कर शेष दोनों भाइयों पर आश्रित बने रहे।

एक दिन नौकर फोन घर पर ही छोड़ कमरे में ताला लगाकर बाजार से दूध लेने गया तो उसका एक्सीडेंट हो गया। लोगों ने उसे हॉस्पिटल पहुँचाया किन्तु वह कोमा में चला गया। नौकर कोमा से होश में ना आ सका और एक दिन चल बसा। उसके पास कोई वस्तु बरामद नहीं हुई थी। (फोन घर पर रख दिया था और एक्सीडेंट के समय चाभी शायद कहीं गुम हो गयी थी) अतः लावारिस मान कर प्रशासन ने उसका अंतिम संस्कार कर दिया।

बेटों ने नौकर को सिर्फ पिता के कमरे की चाबी दी थी। बाकी सारे घर को ताले लगाकर चाबियाँ साथ ले गए थे।प्रतिदिन की भाँति उस दिन भी नौकर उस कमरे को ताला लगाकर चाबी साथ लेकर गया था ताकि उसकी अनुपस्थिति में कोई घर मे घुस ना सके। और फिर वह अभी वापस आ ही जायेगा।

अब बूढ़ा रिटायर्ड मेजर जनरल कमरे में बन्द हो चुका था। वह चल फिर भी नहीं सकता था। किसी को आवाज नहीं दे सकता था।

अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जब सबसे पहले पहला बेटा वापस आया तो घर पर ताला बंद पाकर नौकर को फोन लगाया। लम्बे समय से रिचार्ज न होने के कारण सिम डिएक्टिवेट हो गया था शायद इसलिए फोन नहीं लगा। दूसरे भाइयों से बात करके जानना चाहा कि नौकर से उनकी लास्ट बात कब हुई थी। दोनों ने कोई बात न होने की बात बताई। पड़ोसियों ने बताया कि उन्होंने नौकर को बहुत दिनों से बाहर निकलते या आते जाते नहीं देखा है।

हार मान कर जब ताला तोड़कर कमरा खोला गया तो …

पूरा कमरा हल्की बदबू से भरा हुआ था। खिड़की दरवाजे सब बन्द थे। ए सी चल रहा था अतः कमरे में ठंडक थी। फर्श पर पड़े गद्दे पर एक कंकाल पड़ा हुआ था जिसके गले तक चादर पड़ी हुई थी। उस कंकाल के शरीर में सेना की वर्दी थी जो चादर से बाहर निकली बाहों में दिख रही थी। कमरे में निस्तब्धता छाई हुई थी।

यह कहानी हमें बता रही है कि किस तरह अपनी संतान के लिए नेकी और बुराई की परवाह किए बगैर हम सब उनका भविष्य संभालने के लिए तन, मन, धन खपाते हैं और ज्यादा से ज्यादा दौलत-जायदादें बनाकर उनका भविष्य की पीढ़ियों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते समय यह सोचते रहते हैं कि यह औलाद कल बुढ़ापे में मेरी देखभाल करेगी।

बेहतरीन स्कूलों में भौतिक शिक्षा दिलवाने की आपाधापी में हम ये भूल जाते हैं कि जीवन उपयोगी नैतिक मूल्यों, मानवतायुक्त संस्कारों, धार्मिक विचारों की शिक्षा देने से ही मानव का पूर्ण विकास संभव होता है। नैतिक, सामाजिक, धार्मिक व मानवीय शिक्षा को हम समय की बर्बादी समझते हैं।

यदि ऐसा कहा जाय कि बूढ़े, अपाहिज और अशक्त हो चुके रिटायर्ड मेजर का मर जाना ही उचित था। मानते हैं … किंतु क्या ऐसी मृत्यु… न..न…न!

बसियां के दबंग नेता – दुर्जन सिंह भाटी

दुर्जनसिंह जी का जन्म जैसलमेर के सिंहड़ार गांव में हुआ।
पिताजी स्वर्गीय ठा.खुमान सिंह जी राजस्थान पुलिस में उपनिरीक्षक पद से रिटार्यड हुए माताजी गृहणी थे ।
आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के सरकारी विद्यालय में ही हुई, उसके पश्चात वे हाई स्कूल बाड़मेर में पढ़े व मल्लीनाथ छात्रावास में रहे ।
खेलों में आपकी विशेष रूचि रही वे विद्यालय के हॉकी टीम के कप्तान रहे।
उसके पश्चात बाड़मेर कॉलेज में स्नातक हेतु एडमिशन लिया , ba 1st ईयर के दौरान उनका चयन सीमा सुरक्षा बल (bsf ) में हुआ ।
1986 से 1993 तक सेना में ड्यूटी निभाई, उस दौरान वे आल इंडिया पुलिस ड्यूटी मीट में नेशनल लेवल शूटर रहे ।
Bsf छोड़ने के पश्चात उन्होंने coal market का बिज़नेस शुरू किया जो अब तक है।
बिजनेस के साथ साथ उन्होंने राजनीति में भी कार्य किया ।

2004 में पंचायत समिति सम से पंचायत समिति सदस्य का चुनाव लड़ा ओर जीते ।
2004 से 2009 तक पंचायत समिति सदस्य रहे।
पंचायत समिति सम के प्रधान का भी चुनाव लड़ा ।
राजनीति में मानवेन्द्र सिंह जसोल (पूर्व सांसद एवं विधायक) के सानिध्य में करीब 20 साल से जनसेवा का कार्य कर रहे है।

राजनीति में आदरणीय जसवंत सिंह जसोल से वे बेहद प्रभावित है और इन्हें अपना आइडियल मानते है ।
आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक है और कांग्रेस के लिए कार्य करते है।
दुर्जन सिंह जी जैसलमेर में अपने क्षेत्र में “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” अभियान के लिए प्रेरणास्त्रोत है ।
दुर्जन सिंह जी बेटी दिव्या सिंह ncc की कैडेट है और pm रैली में participate कर चुकी है ।
जिस समय बेटियों को स्कूल भेजने के बारे इस क्षेत्र में कम रुझान था वहीं दुर्जनसिंह ने अपनी बेटी को स्नातक तक पढ़ाया है अब वे सिविल सेवा की तैयारी कर रही है ।
दुर्जन सिंह जी अपने इस अब तक के सफर के बारे में बताते है कि जब में कॉलेज लाइफ में था तब इस क्षेत्र के लोगो बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता था, पानी की भयानक समस्या थी, पूरे गांव में मात्र एक कुआ था मेने खुद ने उससे पानी निकाला है, इस क्षेत्र की भयानक समस्याओं को झेला है, गाये चराने भी गया हूं।
उस समय ठाना था कि इस क्षेत्र को इन समस्याओं से मुक्त कराना है , 5 साल तक में पंचायत समिति सदस्य रहा , 5 साल तक मेरी धर्मपत्नी मेरी ग्राम पंचायत की सरपंच रही इस क्षेत्र के जनहित के लिए मेने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है ।

क्षत्रिय कूल के गौरव ,स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप

जोगराज सिंह भाटी

महाराणा प्रताप एक नाम नहीं बल्कि एक जीता जागता उज्ज्वल इतिहास है , स्वाभिमान ,त्याग ,वीरता , उदारता समर्पण का प्रतीक है ।
महाराणा प्रताप के पास हर चीज सीमित थी , सीमित सेना , सीमित धन , सीमित हथियार और सामने अकबर जैसा शत्रु जिसके पास सभी प्रकार् के संसाधन थे फिर भी समर्पण का भाव मात्र नहीं यही सच्चे क्षत्रिय की निशानी है ।
महाराणा प्रताप और संघर्ष हमेशा साथ साथ चले , पहले आस पड़ोस से संघर्ष फिर अकबर से शत्रुता , जंगलों में अभावग्रस्त जीवन उनको लेकर अकबर ने कहा था कि प्रताप के पास साधन सीमित थे लेकिन फिर भी न डरा , न झुका बल्कि अकबर खुद ही बेचैन रहा ।
जहां भी गए परिवार साथ रहा , परिवार ने भी सब सहा और प्रताप को संबल दिया । जब आप अपने नेक उद्देश्य के प्रति सच्चे होते है तो ईश्वर भी साथ देता है ,उसी रूप में भामाशाह आये और उन्होंने अपना सब कुछ उनको अर्पण कर दिया , प्रताप ने भी उतना ही उपयोग किया जितने के उनकी सैन्य जरूरते पूरी हो जाये । दान के कई उदाहरण है पर प्रताप जैसे योद्धा को दान करके भामाशाह भी दानवीरता के प्रतीक बन गए , उनका नाम भी प्रताप के साथ अमर हुआ।
प्रताप में सब गुण थे ,में उनको महान स्वतंत्रता सेनानी कहूंगा क्योंकि उनको सुख सुविधा पूर्ण परतंत्रता से अभावग्रस्त स्वतंत्रता प्यारी थी और वो उसपे अडिग रहे।
व न्यायप्रिय और नारी सम्मान के भी प्रतीक है अपने बेटे के द्वारा युद्ध मे महिलाओं को बंदी बनाने पे उसे दंडित करके न्याय किया और उन्हें ससम्मान वापस भेज के नारी सम्मान का उदाहरण पेश किया ।
उनका युद्ध कौशल भी उत्कृष्ट था , उन्होंने भीलों की शक्ति को पहचाना और उनकी छापामार युद्ध पद्धति का सही उपयोग किया।
वे धर्म और जाति निरपेक्ष योद्धा थे उन्होंने जो किया वो मानव मात्र के कल्याण के लिए किया , इसको इससे समझा जा सकता है कि हकीम खान सूरी उनके सेनापति थे और मानसिंह से उन्होने युद्ध किया।
उनके धैर्य और साहस का ही असर था कि 30 वर्ष के लगातार प्रयास के बावजूद अकबर महाराणा प्रताप को बन्दी न बना सका। महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा ‘चेतक‘ था जिसने अंतिम सांस तक अपने स्वामी का साथ दिया था।
महाराणा प्रताप में अच्छे सेनानायक के गुंणो के साथ-साथ अच्छे व्यवस्थापक की विशेषताएँ भी थी। अपने सीमित साधनों से ही अकबर जैसी शक्ति से दीर्घ काल तक टक्कर लेने वाले वीर महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर भी दुःखी हुआ था। अकबर की उच्च महत्वाकांक्षा, शासन निपुणता और असीम साधन जैसी भावनाएं भी महाराणा प्रताप की अदम्य वीरता, दृढ़साहस और उज्वल कीर्ति को परास्त न कर सकी।
आज भी महाराणा प्रताप का नाम असंख्य भारतीयों के लिये प्रेरणा स्रोत है। राणा प्रताप का स्वाभिमान भारत माता की पूंजी है। वह अजर अमरता के गौरव तथा मानवता के विजय सूर्य है। राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर है। ऐसे पराक्रमी भारत मां के वीर सपूत महाराणा प्रताप को राष्ट्र का शत्-शत् नमन।

एक जूनून ऐसा भी ,ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण के लिए संदेश देने साइकिल से 23000 km की यात्रा पर निकले सुजीत

सुजीत नाइक पुणे के रहने वाले है , स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद इंजीनियरिंग करने का मन बनाया और gogte institute of technology Belgoum कर्नाटक से मैकेनिकल में बी टेक किया ।

उसके बाद वे पुणे आ गए और वहां कोचिंग लेने लगे , वहां अपने भाई की साईकल से कोचिंग जाते , उस दौरान साईकल चलाना उनकी हॉबी बन गयी ,

पुणे में दोस्तों का ग्रुप बन गया , इस दौरान वे ग्रुप में साइकिलिंग करते , पहाड़ी रास्तों पे सेकड़ो km चलते , सुजीत व उनके मित्रों ने एक साइकिलिंग ग्रुप बनाया , जिसका नाम निसर्ग साईकल मित्र रखा गया , यह ग्रुप लोगो को पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग पे जागरूक करने लगा , वे ग्रुप में जाते और रास्ते मे पौधे लगाते , इस काम मे सुजीत एन्जॉय करने लगे , सुजीत का पूरा ग्रुप अपने आफिस साईकल से जाता है तथा शहर में अन्य काम से कहीं जाना है तो भी वे साईकल की उपयोग में लेते है

एक दिन रात को घर मे सुजीत अकेले बैठे थे और उन्हें सुझा कि क्यों न पुणे से बाहर निकलकर envirement पे लोगो को जागरूक किया जाए , ओर सबसे ज्यादा साईकल पे यात्रा करने का रिकॉर्ड बनाया जाए , सुजित ने अपने दोस्तों से शेयर किया तो उन्होंने भी उसे motivate किया।

You tube और google पे देखने से सुजीत को पता चला कि एक देश मे साईकल से सबसे ज्यादा यात्रा करने का वर्ल्ड रिकॉर्ड ऑस्ट्रेलिया के व्यक्ति के नाम है जो 18000 km है। सुजीत को गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड की प्रक्रिया का नॉलेज नहीं था इसके लिए वे भारत के ही एक व्यक्ति से मिले जिसने 15000 km की यात्रा की थी , उससे प्रक्रिया के साथ साथ यात्रा के अनुभवों को जाना , ओर उसके बाद गिनीज बुक के लिए apply किया , 4 महीने की प्रक्रिया के पश्चात उनका एप्पलीकेशन accept हुआ ।

इस बीच मे साईकल में तकनीकी खामी हो जाये तो उसे ठीक करना इन्हें आता नहीं था , इसे सीखने के लिए साईकल कंपनी decathlon को जॉइन किया और वहां जॉब करते पूरी प्रक्रिया को सीखा ।

4 अगस्त को पुणे से उन्होंने अपनी यात्रा प्रारंभ की , महाराष्ट्र , गुजरात से होते हुए लगभग 2300 km की यात्रा पूर्ण कर वे आज बाड़मेर पहुँचे है जहां मेरी मुलाकात उनसे हुई ।

यात्रा के अनुभवों के बारे में वे बताते है कि कई प्रकार की समस्याए आती है , भारी बारिश में उन्हें चलना मुश्किल होता है पर नियत कार्यक्रम से उन्हें पहुचना होता है इसीलिए वे रुक नहीं सकते , राजस्थान की तपती धूप में उन्हें ओर मुश्किल होती है क्योंकि उन्हें इसकी आदत नहीं है , रुकने की जगह का प्रबंध नहीं होने से वे मंदिर ढूंढ के वहां रुकते है , लेकिन उनके दृढ़ इरादों के आगे यह चीजे बहुत छोटी है ।

यात्रा के दौरान कई बार माताजी का फोन आता है कि बीच में छोड़कर वापस आये पर सुजीत के पिताजी शिवाजी नाइक आर्मी से रिटायर्ड है तो वे उन्हें मोटीवेट करते है ।

सुजीत साईकल से 23000 km की यात्रा करेंगे जो एक वर्ल्ड रिकॉर्ड होगा , गिनीज बुक में उनका नाम लिखा जाएगा इस पर व वे बताते है की मेरा उद्देश्य लोगो को ग्लोबल वार्मिंग ओर पर्यावरण पर जागरूक करना है , वर्ल्ड रिकॉर्ड उससे महत्वपूर्ण नहीं है ।

में उनको उनके नेक उद्देश्य ओर वर्ल्ड रिकॉर्ड हेतु शुभकामनाएं देता हूँ

जोगराजसिंह भाटी

अफवाहों के बाजार से मौत ले रहा गोह

*गोह (Monitor lizard)*
वैरानिडी (Varanidae) परिवार के जीव हैं, जिनका शरीर छिपकली के जैसा, लेकिन उससे बहुत बड़ा और मजबूत होता है।

गोह छिपकिलियों के निकट संबंधी हैं। ये छोटे बड़े सभी तरह के होते है, जिनमें से कुछ की लंबाई तो 10 फुट तक पहुँच जाती है। इनका रंग वयस्कों में प्राय: भूरा या मिट्टी के रंग का रहता है। इनका शरीर छोटे छोटे शल्कों से भरा रहता है। इनकी जबान साँप की तरह दुफंकी, पंजे मजबूत, दुम चपटी और शरीर गोल रहता है।

इनमें कुछ अपना अधिक समय मांद, गहरी दरारों, पेड़ो के बिलों में बिताते हैं और कुछ पानी के पास ज्यादा सक्रिय रहते हैं।

ये सब मांसाहारी जीव हैं, जो पक्षी, दूसरे सरीसृप, चूहे, मछलियां, दूसरे मैरे हुए जीव, कीड़े-मकोड़े, अंडे इत्यादि खाते है।

भारत में गोहों की 4 जातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें सबसे बड़ा वाटर मॉनिटर है। दुनिया का सबसे बड़ा गोह है कमोडो ड्रैगन जो इंडोनेशिया के कमोडो द्वीप पर पाया जाता है। मध्य और दक्षिण भारत में सिर्फ एक प्रजाति बंगाल मॉनिटर पाई जाती है।

सामान्यतः वयस्क मॉनिटर लिजर्ड एक रंग में भूरे या गहरे स्लेटी या मिट्टी के रंग के होते है। बच्चे चटकीले रंग के होते हैं, जिनकी पीली या हल्की भूरी रंग की पीठ पर बिंदियाँ पड़ी रहती हैं और वप अपने वयस्कों से एकदम अलग दिखते हैं।

इन्हें हमारे देश में लोग गोह बिसखोपरा, गुहेरा, गोहटा, घोरपड़ नाम से जाने जाते है
लागों का ऐसा विश्वास है कि बिसखोपरा या गुहेरा बहुत ज़हरीला होता है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं।
ये कोई अलग जीव न होकर गोह के बच्चे हैं, जो ज़हरीले नहीं होते। ये सिर्फ अपनी ही प्रजाति के बड़े सदस्यों से ज्यादा चुस्त और रंग में अलग होते है इसलिए लोग गोह और गुहेरे को अलग अलग जीव समझ कर भेद करते हैं और गुहेरे को बिना कारण के खतरनाक समझते हैं।
इनमे कोई जहर नही पाया जाता इनकी मुँह और लार में बैक्टेरिया हो सकते है जो नुकसान दायक है यदि संक्रमण का सामान्य प्राथमिक उपचार ना किया जाए वर्ना ये पूरी तरह अहानिकारक हैं।

गुहेरे से जुड़ी कुछ प्रचलित दिलचस्प कहानियां जिनका लिखने का मकसद ये है कि लोग समझ जाएं कि इससे जुड़े अंधविश्वास सिर्फ मौखिक प्रचार की वजह से हैं ना कि किसी वास्तविक घटना के आधार पर-

1) हमारे गांव में इसके काटने से गाय/भैंस से तुरंत दम तोड़ दिया था।
2) एक लड़के को उछल के काटा और वो तुरंत मर गया।
3) एक आदमी को घास काटते समय कुछ काटा पर उसने ध्यान नहीं दिया और घास को अपनी छप्पर पर डाल दिया। कुछ महीने बाद उसे छप्पर में घास के साथ कटा हुआ गुहेरा या सांप मिला और उसे तुरंत उस दिन की घटना याद आई और वो उसी समय मर गया।
4) गांव के एक आदमी को उछल के पीछे से काटा और ऐसा होते उसके पड़ोसी ने देखा पर उसने ये बात आदमी कप नहीं बताया। कुछ महीनों बाद उसने उसे बताया और इसे सुन कर वो आदमी तुरंत मर गया।
5) ये जब काटता है तो उसके तुरंत बाद पलट कर पेशाब कर देता है और आदमी की मौत हो जाती है। पर यदि उसके पेशाब करने से पहले आदमी ने कर दी तो वो बच जाएगा और गुहेरा मर जाएगा।

6 ) इसने जीभ निकाली और उस पर बिजली गिर गयी।

इन सब कहानियों का विस्तार सभी हिंदी भाषी क्षेत्रों में है और ये बातें सिर्फ एक दूसरे के मुंह से सुनी जाती है। हर गांव में एक-एक ऐसा किस्सा प्रचलित होता ही है जिसका मतलब है कि ये बातें सिर्फ किस्सों में एक दूसरे को डराने के लिए हैं।

वास्तविकता में सरीसृपों में सिर्फ कुछ सांपों की प्रजातियां ही इंसान को मार सकती हैं और वो भी 2 से 4 घंटे लेती है। सीधी सी बात ये है कि पैरों वाले किसी सरीसृप में किसी भी तरह का कोई हानिकारक जहर नहीं होता है।

मानवेंद्र सिंह: विरासत और अदावत में लिपटे राजनीतिक सफर की कहानी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाली सरकार में जब पिता वित्तमंत्री रहे हों, रक्षा मंत्री रहे हों, विदेश मंत्री की जिम्मेदारी संभाली हो तो खुद के कंधों पर बोझ यकीनन थोड़ा ज्यादा महसूस होता है। आज मानवेंद्र सिंह जब झालरापाटन के मैदान में जोर आजमाइश कर रहे हैं तो उनको पिता जसवंत की थाती का एहसास होता ही होगा।
राजस्थान के रण में उनका मुकाबला सीधे वसुंधरा राजे से है। वो वसुंधरा राजे जो सूबे की मुख्यमंत्री हैं। वो राजे जिनके लिए झालरापाटन की सीट उनकी अपनी जमीन है। वो वसुंधरा जो 15 साल से इसी एक सीट से विधायक हैं। वो वसुंधरा जिन्होंने 2013 के चुनाव में झालरापाटन से 63 फीसदी वोट हासिल किए थे। 63 फीसदी वोट का मतलब समझते हैं न? अपने नजदीकी प्रतिद्वंद्वी पर 53 हजार वोटों से ज्यादा की जीत। लेकिन इस बार चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही है।

विरासत की दौड़ , भविष्य की राह
22 सितंबर 2018। वो दिन जब कई दिनों तक रेतीली भूमि पर समर्थन जुटाने के बाद बाड़मेर की स्वाभिमान रैली में मानवेंद्र माइक पर आए। उन्होंने लंबे भाषण के अंत में जो कहा उसने एक रिश्ते का पटाक्षेप कर दिया। मानवेंद्र ने कहा- एक ही भूल, कमल का फूल। इस एक लाइन के साथ रक्त में मिली भाजपा, मज्जा में बसी भाजपा छूट गई।
इस ऐतिहासिक रैली पर और बात की जाए, मानवेंद्र के बारे में और जाना जाए उससे पहले कुछ बरस पीछे लौटना होगा, ताकि कहानी का असल सिरा पकड़ में आ सके।
बात जसवंत सिंह की
राजस्थान की राजनीतिक रणभूमि पर पैनी नजर रखने वाले जानते हैं कि कभी वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में जसवंत सिंह की बड़ी भूमिका रही थी। वो जसवंत ही थे जिन्होंने भैरों सिंह शेखावत और सुंदर सिंह भंडारी जैसे दिग्गजों के ऐतराज के बावजूद वसुंधरा को आगे किया, उन्हें सीएम की गद्दी पर बिठवाया। लेकिन क्या मालूम था कि साल गुजरते-गुजरते एक रिश्ता इतना तल्ख हो जाएगा। उसमें इतनी सड़न आ जाएगी कि एक दिन उसे काटना होगा।

2014 में जसवंत सिंह की इच्छा थी कि वो बाड़मेर से चुनाव लड़ें। तब, जसवंत दार्जीलिंग से सांसद थे। राजे ने बाड़मेर से उनके लड़ने का विरोध किया। राजे का समर्थन तब तक भाजपा में आ चुके कर्नल सोनाराम के साथ हो चुका था। जसवंत को समझाने की कोशिश भी हुईं लेकिन बागी हो चुके जसवंत निर्दलीय ही चुनावी समर में कूद पड़े। उन्हें हार का सामना करना पड़ा। कुछ समय बाद घर में ही एक दुर्घटना के बाद वो कोमा में चले गए। शायद, यही वो पल था जब परिवार ने भाजपा से पूरी तरह दूरी बनाने का फैसला कर लिया। जो जसवंत कई दशक तक पार्टी में रहकर काम करते रहे, सरकार में बड़े पदों पर रहे वो दूर भी हुए तो ऐसे कि भुला ही दिए गए।

कुछ घावों की टीस कभी जाती नहीं। रह-रहकर उभरती है। जसवंत सिंह के पूरे परिवार के लिए राजे और पार्टी के साथ रिश्ता एक टीस बन गया जिसका इलाज उन्हें जरूरी लगने लगा।
अब लौटते है मानवेन्द्रसिंह पर

मई 1964 को जोधपुर में जन्मे मानवेंद्र अपने गांव जसोल में पढ़ने के बाद मेयो कॉलेज गए। आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका और लंदन भी गए। सियासत के समंदर में गोता लगाने से पहले वो स्टेट्समैन और इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों में पत्रकार रह चुके हैं। 1999 में पहला चुनाव लड़ा बाड़मेर-जैसलमेर से। सोनाराम ने उन्हें हराया। लेकिन 2004 में वापसी करते हुए मानवेंद्र ने करीब पौने तीन लाख वोटों के रिकॉर्ड अंतर से सोनाराम को पटखनी दे दी। 2013 में वो शिव विधानसभा सीट से विधायक बने लेकिन अगले ही साल पिता के लिए प्रचार के आरोप में पार्टी ने उन्हें सस्पेंड कर दिया। यानी, सवाल ये उठा कि भाजपा में रहते हुए वो अपने बागी हो चुके पिता के प्रचार में क्यों लगे। वक्त गुजरा लेकिन जख्म नहीं भर सके। 22 सितंबर की रैली में उन्होंने भाजपा को रक्त-मज्जा से निकालकर फेंका और 17 अक्तूबर को पूरे परिवार के साथ कांग्रेस की सदस्यता लेली।
झालरापाटन में मानवेंद्र के लिए क्या रखा है?
राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की दूसरी सूची में 31वें नंबर पर दर्ज नाम था- मानवेंद्र सिंह, विधानसभा-झालरापाटन। सहसा यकीन नहीं हुआ। मालूम था कि मानवेंद्र जंग में लौटेंगे लेकिन उम्मीद बाड़मेर, जैसलमेर के आसपास की थी झालावाड़ के झालरापाटन की नहीं। भूगोल और राजनीति के भूगोल, दोनों में दिलचस्पी हो तो बाड़मेर से कुछ सात सौ किलोमीटर दूर ठहरता है झालावाड़। लेकिन, खबरों की मानें तो मानवेंद्र ने झालारापाटन में खुद को झोंक दिया है। वो बखूबी जानते हैं कि ये उनका इलाका नहीं है। ये उनकी जमीन नहीं है। लेकिन, जख्म जब गहरे हों तो लड़ने का हौसला मिल जाता है। शायद, यही वजह है कि इन दिनों वो झालरापाटन में 10 से 12 घंटे तक नुक्कड़ सभाएं करते, रैलियां करते मिल जाते हैं।
इधर वसुंधरा राजे, झालरापाटन को लेकर इस कदर निश्चिंत हैं कि जब मानवेंद्र के नाम का एलान हुआ तो उन्होंने कहा, “मैं तो सोच रही थी कि वो कोई धार्मिक कार्ड या जातिगत कार्ड खेलेंगे लेकिन मुझे हैरानी है कि वो किस तरह का कार्ड खेल रहे हैं।” अभी भी, प्रचार की कमान उनके बेटे दुष्यंत ने संभाल रखी है। वो 15 साल से यहां से विधायक हैं।

कभी झालावाड़ से बतौर सांसद और बीते तीन बार से झालरापाटन से बतौर विधायक। उन्हें जीत का पूरा भरोसा है। शायद यही वजह है कि वो प्रचार के बिल्कुल आखिरी दिनों में यहां पहुंचेंगी।

लेकिन ये समझना होगा कि कई बार भीतर तूफान मचा हो तो भी बाहर शांति बरतनी पड़ती है। विरोधी से लड़ने का ये भी एक तरीका होता है। कौन जानता है कि वसुंधरा इसी तरीके पर काम कर रही हों।

करणी सेना ने मानवेंद्र के समर्थन का बाकायदा एलान कर दिया है। पद्मावत विवाद और आनंदपाल एनकाउंटर के बाद, वसुंधरा के खिलाफ राजपूतों की नाराजगी सबके सामने हैं। मानवेंद्र पूरी कोशिश करेंगे कि वो इस गुस्से की आग का फायदा उठाकर मैदान मार ले जाएं। ये शायद राजस्थान के रण की सबसे नजदीक से देखा जाने वाला ‘युद्ध’ साबित होगा।

मानवेंद्र सिंह का कांग्रेस में शामिल होना और राजपूत समाज की चुनावी दिशाएं

मानवेंद्र सिंह ने आज काँग्रेस जॉइन कर ली है।

और यह भी कहा जा रहा है कि उनका निर्णय सही नहीं है।

पर मैं इससे सहमत नहीं हूं ।

लोग यह भी सलाह देते हैं कि उन्हें कांग्रेस जॉइन नहीं करनी थी बल्कि निर्दलीय के रूप मे बीजेपी का विरोध करना चाहिए।

ऐसा कहने वाले लोग इस बात को मानते भी है कि समाज के स्वाभिमान की रक्षा के लिए और उसपर जो चोट हुई है उसके लिए बीजेपी का भरपूर विरोध किया जाना वर्तमान समय की आवश्यकता है।

अगर बीजेपी का भरपूर विरोध किया जाना समाज के लिए नितांत आवश्यक है तो फिर यह विरोध किस तरह से किया जावे यह बहुत बुद्धिमता पूर्ण तरीके से तय किया जाना चाहिए।

क्या कभी निर्दलीय रहकर बीजेपी के समाज विरोधी रुख का कड़ा प्रत्युत्तर दिया जा सकता है पहले हमें इस भी पर गहन रूप से विचार कर लेना चाहिए।

हमें इसके लिए अतीत में जाना पड़ेगा। राजस्थान में मूल रूप से कांग्रेस और बीजेपी दो ही पार्टियां मजबूत रही है। और तीसरे मोर्चे का अथवा निर्दलीय का कोई खास अस्तित्व अतीत में नहीं रहा है।

और ऐसा प्रयोग बहुत धैर्य मांगता है जोकि आज की राजनीति में संभव नहीं है। देवी सिंह जी भाटी ने सामाजिक न्याय मंच के माध्यम से यह प्रयोग करने की कोशिश की थी और वे विफल रहे।

उसका सबसे बुरा परिणाम यह रहा था कि बीजेपी में दोयम दर्जे के जनाधार विहीन राजपूत नेतृत्व को देवी सिंह जी भाटी पर प्राथमिकता मिल गई और देवी सिंह जी भाटी पार्टी में हाशिए पर चले गए।

आज जो हम राजपूत समाज की भाजपा में दुर्गति देखते हैं वह देवी सिंह जी भाटी के इसी पराभव की ही देन है। देवी सिंह जी भाटी राजपूत समाज के एक प्रखर समर्थक थे और खुले तौर पर पार्टी पर राजपूत समाज का को तवज्जो देते थे।उनका कद राजनीति में बहुत बड़ा था। और राजपूत समाज में उनका प्रभाव इतना गहरा था कि बीजेपी के संघ समर्थक और राजपूत विरोधी लोग उससे भयभीत थे।

यह लॉबी येन केन प्रकारेण चाहती थी कि बीजेपी का राजपूत नेतृत्व सदैव कमजोर और उनका चापलूस बना रहे। जिससे कि आर एस एस और गैर राजपूत व्यापारी वर्ग अपनी राजनीति और प्रभाव को बीजेपी में बनाए रखें। इसके साथ में ही बीजेपी में राजपूतों का बहुत बड़ा वोट वोट बैंक गुलामी की तरह उन से चिपका रहे।

देवी सिंह जी भाटी के सामाजिक न्याय मंच के गठन और तीसरे मोर्चे के रूप में लड़ने से जनाधार विहीन बीजेपी के नेताओं को यह अवसर हासिल हो गया और देवी सिंह जी भाटी का राजनीतिक कैरियर का सूरज अस्त हो गया और उनका राजनीतिक वजूद सदा सदा के लिए हाशिए पर चला गया।

इसका परिणाम समग्र राजपूत समाज को बुरी तरह से भोगना पड़ा। उसके बाद जो नेता राजपूत के रूप में समाज में प्रभावी रहे वे राजपूत समाज के प्रति जरा भी वफादार नहीं रहे हैं। उनकी राजनीति उनके स्वयं के कैरियर के प्रति ज्यादा वफादारी रख रही थी। और वे सिर्फ राजपूत कोटे से अपनी दावेदारियां पार्टी के समक्ष रखने के लिए समाज का उपयोग करना चाहते थे। और समाज के वोटों को एक मुश्त हासिल करने के बाद बीजेपी पार्टी के कारण मिलने वाले वोटों के योग से अपना राजनीतिक कैरियर कैरियर संवारना चाहते थे। ऐसे लोगों ने सदैव राजपूत समाज के हितों की अनदेखी की और यही वजह थी की 2008 से 2013 तक कांग्रेस के राज में भी राजपूत विपक्ष में ही रहा और 2013 में जब बीजेपी की सरकार आई तो यह चापलूस राजपूत नेता केवल अपने मंत्री पद और कैरियर को बचाने के लिए 5 साल तक बीजेपी की जी हुजूरी करते रहे।

इस बीच राजपूतों के साथ भयंकर अन्याय हुआ समाज को पूरी तरह से उपेक्षित रखा गया चाहे वह जसवंत सिंह जी की टिकट कटने का प्रकरण हो,चतर सिंह की हत्या का प्रकरण हो, आनंदपाल प्रकरण हो, आमेर के महल का प्रकरण हो, पद्मावती के अपमान का विषय हो और चाहे सामराउ प्रकरण हो सभी में हर तरीके से राजपूतों को अपमानित और प्रताड़ित किया गया।

इसकी एक ही वजह थी की देवी सिंह जी भाटी के हाशिये पर जाने के पश्चात पार्टी के दूसरे दर्जे के राजपूत नेताओं जिन्हें लोकप्रिय शब्दों में भाजपूत भी कहा जाता हैं, में इतना आत्मविश्वास ही नहीं था कि वे समाज का दर्द और पक्ष पार्टी के समक्ष कहीं भी रख सके।

उन्हें सदैव यह डर सताता रहा था कि कहीं वे पार्टी द्वारा शक्तिच्युत नहीं कर दिये जाए, क्योंकि भाजपूतों के पास जनाधार तो है नहीं।इसलिए इन सभी राजपूत नेता राजपूतों के साथ हुए घोर अन्याय और सामराऊ जैसे प्रकरण में भी भीरुता और कायरता प्रदर्शित करते हुए मौन ही धारण किये रहे।

अब जब यह सिद्ध हो गया की बीजेपी के इन्हीं चापलूस जनाधार विहीन राजपूत नेताओं की वजह से न केवल देवी सिंह जी भाटी जैसे राजपूत समाज समर्थक जन नेता का कद समाप्त हुआ बल्कि राजपूत समाज का राजनीतिक वजूद ही समाप्त होने की स्थिति में आ गया है, समाज को अब सोच समझ कर ही चलना चाहिए।

कांग्रेस के राज में भी राजपूत राजनीतिक शक्ति से दूर ही रहे ।

और उसके बाद जब बीजेपी का राज आया तो एक बार फिर 5 साल के लिए राजपूतों को केवल प्रताड़ना ही सहनी पड़ी।

अब इस समय जब राजपूत समाज अपने साथ हुए हुए घोर अन्याय और अत्याचार का बदला लेने के लिए एकजुट हो गया है तो सब लोगों को मिलकर इसमें संघर्ष करना चाहिए।

मगर ऐसे ही जनाधार विहीन लोग राजपूतों में एक प्रकार का कन्फ्यूजन क्रिएट करना चाहते हैं। यह लोग चाहते हैं कि राजपूत इस चुनाव में इतने बिखर जाएं की उनका वोटों के रूप में कोई स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं रहे और भविष्य में कोई पार्टी उनको जाति के रूप में तवज्जो नहीं दे।

ऐसी स्थिति में जो वर्तमान में बीजेपी में जनाधार विहीन राजपूत नेता है वे आने वाले समय में अपने कैरियर को चमकाते रहेंगे और पार्टी मे वरिष्ठ और राजपूत कोटे में उपलब्ध होने की वजह से ऊँचे पदों व लाभ को भोगते रहेंगे।

आम राजपूत मजबूर होकर जाति के नाम पर उनको वोट देता रहेगा। हमें इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए की अगर बीजेपी का विरोध ही करना है तो हमें वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।

अगर देवी सिंह जी भाटी जैसे नेतृत्व तीसरे मोर्चे के रूप में भारी पराजय प्राप्त करके अलग थलग हो सकते हैं तो आज तो कोई ऐसा राजपूत नेतृत्व ही नहीं है जो तीसरे मोर्चे के रूप में एक मजबूत शक्ति की स्थापना करते हुए सार्थक विकल्प उपलब्ध करवा सके।

हमारे पास केवल दो तरह के उपाय शेष रहते हैं एक अल्पकालिक दूसरा दीर्घकालिक! अल्पकालिक उपाय के रूप में राजपूत समाज को केवल एक उद्देश्य को ध्यान में रखना है।

और वह है बीजेपी को न भूल सकने वाली कड़ी पराजय देना। जिसको को प्राप्त करने के लिए तात्कालिक रूप से हमें बीजेपी विरोधी ताकतों को मजबूत बनाना होगा चाहे वे ताकतें अतीत में हमारे साथ खड़ी रही है अथवा नहीं!

दीर्घकालिक उपाय के रूप में तीसरे मोर्चे की बात सोची जा सकती है।

इसलिए मानवेंद्र सिंह का यह निर्णय व्यवहारिक दृष्टिकोण से श्रेष्ठ ही कहा जाएगा कि उन्होंने अपने विरोध को क्षीण नहीं होने दिया और जो बीजेपी विरोधी सबसे प्रमुख पार्टी थी उसमें शामिल हो गए।

अब वे अपनी शक्तियों को पूरी ताकत से बीजेपी को परास्त करने के लिए उपयोग में ला सकेंगे और यह राजपूत समाज के लिए भी श्रेष्ठ घटना है।

कांग्रेस ने भी अपनी मजबूरी की वजह से राजपूत समाज को महत्ता दी है। और यह कांग्रेस के इतिहास में पहली बार हो रहा है क्योंकि कांग्रेस अब यह मानने लगी है कि उसका मूल वोट बैंक में जो sc-st और जाट जाति है वह अपने सदस्यों की अंतर्निहित महत्वकांक्षाओं के चलते अब विभाजित हो चुकी है।

इन दोनों वर्गों के राजनेताओं की अति महत्वाकांक्षाओं के कारण यह लोग भाजपा कांग्रेस बसपा और अन्य पार्टियों में बंट चुके हैं। अतः केवल इन के भरोसे कांग्रेस सत्ता हासिल नहीं कर सकती है। इसलिए इसकी भरपाई के लिए उसे बीजेपी के आधार में सेंध लगानी जरूरी है। इसलिए राहुल गांधी ने मानवेंद्र सिंह को शामिल करके अपनी पार्टी मे राजपूत के रूप मे बहुत बड़ा जनाधार जोड दिया है।

फिलहाल यह कांग्रेस और राजपूतों दोनों के लिए विन विन सिचुएशन है। अब राजपूत समाज अगर बीजेपी के विरोध में वोट करता है और कांग्रेस को वोट देता है तो यह सीधा मैसेज जाएगा कि बीजेपी से राजपूतों की नाराजगी ने राजस्थान में सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

वैसे भी राजपूत समाज कभी जातिवादी नहीं रहा है राजपूत समाज का हर व्यक्ति सभी समाजों से सामंजस्य स्थापित करके चलता है और समाज को नेतृत्व प्रदान करता है कांग्रेस के साथ जोड़ने के कारण समाज को यह अवसर भी मिल गया है।

यह भी कहा जा रहा है कि 2008 में कांग्रेस ने राजपूतों को नहीं अपनाया था तो अब स्थितियों में क्या भिन्नता आ गई है। तो मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं की 2008 में कांग्रेस ने राजपूतों का दामन नहीं थामा था और जाटों ने भी कांग्रेस में पूरी तरह से जुड़ाव साबित नहीं किया था इस कारण इस कारण कांग्रेस पूर्ण बहुमत नहीं ला सकी थी।

और 2013 के चुनाव में जब एंटी इनकंबेंसी सामने आई तो वह मात्र 21 सीटों में सिमट गई और यह सबक कांग्रेस ने अब लिया है कि उसे अगर राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपना अस्तित्व बचाए रखना है तो वह किसी जाति विशेष की पार्टी होकर अथवा जाति विशेष के दबाव में आकर अपना अस्तित्व नहीं बचा सकती है। उसको सदैव सभी जातियों और वर्गों को सही अर्थों में एक साथ लेकर 36 कौम की पार्टी बनकर ही अपना आधार बचाए रख सकती है।

यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस और राजपूत नेताओं के रूप में मानवेंद्र सिंह जी ने अपने अपने सबक ले लिए हैं और उसके अनुरूप ही दोनों एक दूसरे का साथ दे रहे हैं।

कुल मिलाकर मानवेंद्र सिंह जी का कांग्रेस में जाना मानवेंद्र सिंह जी के लिए और राजपूत समाज दोनों के लिए लाभदायक है और कांग्रेस पार्टी के लिए भी यह एक वरदान है जो कि सही अर्थों में कांग्रेस को 36 कौन की पार्टी बना सकता है।यह समझौता एक दूसरे के हित में है और अगर किसी ने भी इसका पालन सच्चे अर्थों में नहीं किया तो राजपूत समाज के पास अपने विकल्प खुले हैं।

राजपूतों की एकता ही राजपूतों को न्याय दिला सकती है और राजपूतों की राजनीतिक ताकत बढ़ा सकती है। समाज को चाहिए की वह एकजुट होकर बीजेपी को परास्त करने में जुट जाए।हमारा यही अल्पकालिक लक्ष्य है।

मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में शामिल होने से हमारे बीजेपी विरोध को बहुत बड़ा मंच मिला है हमें अब यह नहीं सोचना है की अतीत में हमें किस पार्टी ने कितना बुरा व्यवहार किया था सच्चाई यह है कि दोनों पार्टियों ने राजपूतों का शोषण किया है।

मगर वर्तमान में कांग्रेस पार्टी मजबूर है और इस स्थिति में है कि वह अपने अतीत की घटनाओं से सबक लेकर राजपूत समाज को अपने साथ जोड़े और उसके वंचित तबके के साथ न्याय करें। जबकि बीजेपी सत्ता की महत्वाकांक्षा में चूर है वह येन केन प्रकारेण हर हालत में अपनी सत्ता को बरकरार रखना चाहती है। उसके लिए वह अपने सिद्धांतों से और अपने आधारभूत वोट बैंक के हितों से समझौता कर रही है।

और तुष्टीकरण के नजरिए के साथ जाटों को और एससी-एसटी को आवश्यकता से अधिक महत्व देने की कोशिश कर रही है।बीजेपी यह मानकर चल रही है की सवर्ण वर्ग तो मजबूर है और राजपूत भी बीजेपी के अलावा कहीं जा ही नहीं सकते हैं।

अतः हम भी इस अवसर का फायदा उठाएं और बीजेपी को अपनी औकात दिखाएं। बीजेपी के हारते ही राजपूत वर्ग का महत्व राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ जाएगा और दोनों पार्टियां मजबूर होकर राजपूत हितों की पैरवी करेगी।

अगर कांग्रेस राजपूतों के साथ न्याय नहीं करेगी तो लोकसभा चुनाव में और उसके बाद आने वाले चुनाव में राजपूतों के विकल्प खुले रहेंगे।

आखिर समाज को भी ऐसे जनप्रतिनिधियों की आवश्यकता है जो समाज के साथ अन्याय और शोषण का प्रतिकार कर सकें और समाज के न्यायोचित हितों के लिए लड़ सके।न कि समाज को सीढ़ी बनाकर अपना राजनीतिक कैरियर और कद बनाने वाले क्रूर राजनेताओं की।

कुलमिलाकर मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में शामिल होने पर राजपूत समाज को परिपक्व प्रतिक्रिया देनी चाहिए और इस पर सकारात्मक रूप से सोचना चाहिए। यह समाज के लिए अपने अस्तित्व को पुनर्स्थापित करने का बहुत बड़ा अवसर है।

रही बात बीजेपी की तो उसे अपने अहंकार और राजपूतों के प्रति नीच दुराग्रहों की सजा मिलनी ही चाहिए।

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मानवेन्द्रसिंह एक स्वाभिमानी नेता

राजस्थान की मालानी की धरा पर जसोल एक पवित्र एवं प्रसिध्द जगह है ही क्योंकि माता रानी भटियाणी जी का स्थल है यह लेकिन जसोल प्रसिध्द इसलिए भी है क्योंकि इसने देश को जसवंतसिंह जैसी सख्शियत दी।
जसवंत सिंह भारतीय राजनीति के उन थोड़े से राजनीतिज्ञों में से हैं जिन्हें भारत के रक्षा मंत्री, वित्तमंत्री और विदेशमंत्री बनने का अवसर मिला। वे वाजपेयी सरकार में भारत के विदेश मंत्री बने, बाद में यशवंत सिन्हा की जगह उन्हें वित्तमंत्री बनाया गया।
3 जनवरी 1938 को जसवंत सिंह का जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के गांव जसोल में राजपूत परिवार में हुआ। पिता का नाम ठाकुर सरदारा सिंह और माता कुंवर बाई सा थीं। उन्होंने मेयो कॉलेज अजमेर से बीए, बीएससी करने के अलावा भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून और खड़गवासला से भी सैन्य प्रशिक्षण लिया। वे पंद्रह की उम्र में भारतीय सेना में शामिल हो गए। जोधपुर के पूर्व महाराजा गजसिंह के करीबी जसवंतसिंह 1960 के दशक में वे भारतीय सेना में अधिकारी थे बाद में वो राजनीति में आये और सर्वश्रेष्ठ सांसद के खिताब से भी नवाजे गए । जसवंत को अटलबिहारी वाजपेयी का हनुमान कहा जाता है ।
जसवंतसिंह का नाम उन नेताओं में भी समिलित है जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी नाम के छोटे से पौधे को मेहनत से सींच सींच के वटवृक्ष बनाया।
कंधार विमान हाइजेक में आंतकवादियों के गढ़ में जाकर अपने लोगो को छुड़ाने का साहस भी जसवंतसिंह ने दिखाया था।
2014 के लोकसभा चुनाव में जसवंतसिंह बाड़मेर जैसलमेर से चुनाव लड़ना चाहते थे , उनका मानना था कि इतने साल देश की सेवा करने के बाद अब वक्त आ गया है कि अपने लोगो के लिए कुछ किया जाए क्योंकि वो जानते थे कि संभवतः उनका यह अंतिम चुनाव है परंतु बीजेपी द्वारा उन्हें टिकट न देकर कुछ दिन पूर्व बीजेपी में समिलित हुए सोनाराम चौधरी को टिकट दिया गया । जसवंतसिंह जैसे स्वाभिमानी नेता के लिए यह अपमानजनक फैसला था इसलिए उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला लिया और कम अंतर से उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जसवंतसिंह को 4 लाख से अधिक वोट मिले थे जो बड़ी बात थी ।
जसवंतसिंह जब बागी हुए तब उनके पुत्र और शिव के बीजेपी विद्यायक मानवेन्द्रसिंह के लिए असमंजस की स्थिति खड़ी हो गई । इसीलिये वो चुनाव प्रचार से दूरी बनाए रहे ।
अपने पिता की तरह वे भी भारतीय सेना में है और जसवंतसिंह के सारे गुण उनमें है ।
पिता का जब ऐसा अपमान हुआ तब पुत्र के लिए धैर्य रखना कैसे संभव है लेकिन मानवेन्द्र ने धैर्य रखते हुए भाजपा के साथ बने रहे । उसके बाद जस्वतसिंह को चोट लगने से वे कोमा में चले गए और अभी भी उनका इलाज चल रहा है ।
मानवेन्द्रसिंह ने एक पुत्र के तौर पर अपने पिता की देखभाल और एक कर्तव्यनिष्ठ राजनेता के तौर पे अपने विधानसभा क्षेत्र की सेवा दोनों को बखूबी से निभाया ऐसा कहना तो आसान है परंतु अमल में लाना बेहद मुश्किल ।
आज बाड़मेर के शिव विधानसभा क्षेत्र में सबसे ज्यादा विकास के कार्य हुए है । वे अस्पताल के साथ साथ बाड़मेर से भी निरंतर जुड़े रहे ।
बीजेपी से लगातार अनबन के चलते भी उन्होंने धैर्य रखा और बीजेपी के शीर्ष नेताओं तक अपनी पीड़ा लगातार पहुंचाते रहे जिसका वो जिक्र स्वाभिमान रैली में उन्होंने किया है।
उनका धैर्य 4 साल उपरांत अब खत्म हुआ और उन्होंने 22 सितम्बर को स्वाभिमान रैली में बीजेपी से नाता तोड़ दिया ।
इतनी अनबन के चलते 4 साल तक धैर्य रखना एक साधारण इंसान के लिए संभव नही है क्योंकि मानवेन्द्र सिंह जानते थे कि बीजेपी को इस स्तर तक पहुचाने में उनके पिता का कितना योगदान है । 4 सालों में मानवेन्द्र सिंह ने न कोई ऐसा बयान दिया न ही ऐसा कोई काम किया जो पार्टी के खिलाफ हो वे निरंतर पार्टी के प्रति वफादार बने रहे इसीलिये आज उन्होंने बेदाग ओर स्वच्छ छवि के साथ बीजेपी छोड़ी ।
जहाँ पार्टी ने बाड़मेर जैसलमेर की जनता के साथ गलत किया तब उनके खिलाफ आवाज उठाने के लिए उनकी पत्नी चित्रासिंह हमेशा जनता के साथ खड़ी रही और मानवेन्द्रसिंह ने पार्टी और जनता के बीच सामंजस्य बनाये रखा।
हाल ही में रेशमा के शव को भारत लाना हो या पत्रकार दुर्गसिंह को छुड़वाने के लिए नीतीश सरकार से हस्तखेप करवाना हो , इनसे मानवेंद्रसिंह की छवि राजस्थान के शीर्ष कदावर नेताओं में बनी है । यही कारण है कि उनकी स्वाभिमान रैली में अपने व्यक्तिगत खर्च से पूरे भारत से लाखों लोग पहुचे थे ओर उन्ही के आह्वान पर उन सभी के साथ मानवेन्द्रसिंह ने बीजेपी छोड़ी ।
अपने आगामी चुनाव के फैसले को भी सिंह ने जनता पे छोड़ दिया क्योंकि उनका मानना है कि उन्हें यहां तक जनता ने पहुचाया है और आगे का रास्ता भी उनकी बजाय जनता तय करेगी।
उनकी छवि 36 कोम के नेता की है वे जाति या मजहब आधारित राजनीति नही करते यही कारण है कि उनकी स्वाभिमान रेली में हर मजहब ओर हर जाति के लोग मौजूद थे । उनकी आदर्श नेता की ही छवि के कारण में उनका पिछले 5 वर्ष से फॉलोवर हूँ , देश की स्वच्छ राजनीति के लिए इनके जैसे नेताओं की आवश्यकता है ।
मुझे या मेरे परिवार को उनकी ओर से कोई व्यक्तिगत फायदा नही मिला है इसीलिए में निष्पक्ष भाव से यह बोल सकता हूँ क्योंकि वो इस छवि के नेता है भी नहीं ।
उनकी लिखी किताबों को पढ़के उनके विचारों को जाना है मेने ओर उनके व्यक्तिव को मैने विस्तार से जिसा दुर्जनसिंह भाटी से जाना क्योंकि वो जसवंत परिवार से पिछले 20 वर्षों से जुड़े हुए है ।
मुझे बड़ा दुख होता है कि कुछ लोग मंच के नीचे ओर ऊपर बैठने को लेकर उनके व्यक्तित्व पे सवाल खड़ा करते है , उस रैली के स्तर और उद्देश्य को समझने की आवश्यकता है ।
जसवंतसिंह ने अपना ओर अपने परिवार का राजनीतिक करियर बाड़मेर जैसलमेर की जनता के लिए लगाया था वरना उन्हें तो बीजेपी बड़ा पद देने के लिए तैयार थी और मानवेन्द्रसिंह को भी मंत्री पद आफर किया गया था यदि उन्हें अपना स्वार्थ ही सिद्ध करना होता तो वो उस समय कर लिए होते लेकिन सच्चे इंसान के लिए सबसे बड़ी पूंजी उसका स्वाभिमान होता है और जसवंत परिवार ने अपने स्वाभिमान की रक्षा बखूवी की है और हमारे स्वाभिमान के लिए वो सत्ताधारी पार्टी से लड़ रहे है।
इसीलिये आप सभी स्वाभिमानी लोग सोशल मीडिया के स्वघोषित नेताओं के बहकावे में आकर अपना आपसी सौहार्द न बिगाड़े ओर इस स्वाभिमान की लड़ाई में तन मन से साथ खड़े रहे ।

एक हो जाएँ तो बन सकते हैं ख़ुर्शीद-ए-मुबीं
वर्ना इन बिखरे हुए तारों से क्या काम बने

एकता बनाये रखे।।

जय जय स्वाभिमान
जोगराजसिंह भाटी

यह कैसे पता किया जाए कि काटने वाला साँप ज़हरीला था अथवा नहीं?

यदि हम भारत की ही बात करें तो हमारे देश में लगभग 20 हज़ार लोग हर साल सर्पदंश के शिकार बनते हैं। इस तरह के आँकड़े सुनने के बाद अक्सर मन में यह सवाल उठता है कि इस बात की पहचान कैसे की जाए कि काटने वाला साँप ज़हरीला था अथवा नहीं? क्योंकि यदि इस तरह की जानकारी लोगों के पास हो, तो उससे साँप के शिकार व्यक्ति को बचाने में काफी मदद मिल सकती है।

आमतौर से ज़हरीले साँप के काटने के 15 मिनट के भीतर जो लक्षण उभरते हैं, उन्हें देखकर यह स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है कि काटने वाला साँप ज़हरीला था अथवा नहीं। हालाँकि काटने वाले साँप की प्रजाति तथा सर्प द्वारा दंश के समय छोड़े गये विष की मात्रा पर ये लक्षण काफी हद तक निर्भर होते हैं, लेकिन निम्नांकित लक्षणों को देखकर इस बात की पहचान आसानी से की जा सकती है कि काटने वाला साँप विषैला था या विषहीन।

साँप के काटे गये स्थान पर त्वचा का रंग लालिमायुक्त हो जाता है। उस स्थान पर सूजन नजर आने लगती है और पीड़ित व्यक्ति को तेज दर्द का अनुभव होता है।

ज़हरीले साँप के काटने पर पीड़ित व्यक्ति को साँस लेने में कठिनाई होने लगती है (कई मामलों में साँस रूक भी जाती है), उसकी दृष्टि कमजोर होने लगती है, आँखों के आगे धुंधलापन नजर आने लगता है।

पीड़ित व्यक्ति का जी मिचलाने लगता है, उल्टी होने लगती है, मुँह से लार निकलने लगती है और शरीर की त्वचा अत्यधिक पसीना छोड़ने लगती है।

ज़हरीले साँप के काटने पर हाथ-पैरों में झनझनाहट सी होने लगती है, धीरे-धीरे हाथ-पैर सुन्न से होने लगते हैं और लकवे के लक्षण बढ़ने के साथ ही पीड़ित व्यक्ति की आवाज भरभराने लगती है, आँखें उनींदी सी हो जाती हैं और किसी भी वस्तु के निगलने में परेशानी होती है।

धीरे-धीरे ये लक्षण बढ़ते जाते हैं, जिससे मांसपेशियों में कमजोरी हो जाती है और होंठ तथा जीभ नीली पड़ने लगती है।

यदि पीड़ित व्यक्ति के अंदर उपरोक्‍तानुसार लक्षण उभर रहे हों तो उसे किसी योग्य डॉक्टर के पास ले जाएँ और जल्द से जल्द एंटीवेनम लगवाएँ। क्योंकि सर्पदंश का एकमात्र इलाज एंटीवेनम है। ध्यान रहे, साँप के ज़हर को किसी बूटी, पत्थर अथवा मंत्र द्वारा उतारा जाना सम्भव नहीं है।

अतृप्त यौन भावनाओं के नाम पर बलि चढ़ रहा खूबसूरत सैंड बोआ(बोगी-स्थानीय नाम) सांप

दोमुंहा सांप के नाम से मशहूर रेड सेंड बोआ सांप (Red Snad Boa Snake) ईरान, पाकिस्तान तथा भारत में पाया जाता है। यह एक विषहीन सांप है, जो बेहद शर्मीला होता है। यह सांप देखने में बहुत खूबसूरत होता है तथा रेतीली मिट्टी में रहना पसंद करता है। यह सांप इतना सीधा होता है कि अगर आप इसे हाथ में भी उठा लेंगे, फिरभी यह आपको नहीं काटेगा।

इस सांप का मुंह और पूंछ एक जैसे होते हैं, इसीलिए यह दोमुंहा सांप के नाम से पुकारा जाता है। शायद सांप को भी अपनी इस विशेषता का भान होता है, इसीलिए खतरा होने पर यह अपनी पूंछ को ऊपर उठा लेता है और उसे मुंह की तरह लहराता है। इससे दुश्मन भी उसे मुंह समझ लेता है और उसपर अपना वार करता है। इससे सांप अपनी रक्षा करने में सफल हो जाता है। सांप की इसी चतुराई के कारण ही इसे दो मुंह वाले सांप के रूप में समझने का भ्रम प्रचलित है।

भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों में इस सांप से जुड़ी अनेक किंवदंतियां और अंधविश्वास फैले हैं, जिसके कारण इसकी जान खतरे में रहती है। कहा जाता है कि अमेरिकन बाजारों में इस सांप की भारी मांग है और वहां पर इसकी दो से तीन हजार डॉलर तक मिल जाती है। इसी वजह से इस सांप की बड़े पैमाने पर स्मगलिंग भी की जाती है।

रेड सैंड बोआ सांप से जुड़े अंधविश्वास:
कुछ भारतीय कबीलों में यह मान्यता है कि यदि इस सांप को विशेष क्रियाओं द्वारा अभिमंत्रित करके इसके मांस का सेवन किया जाए, तो मनुष्य अलौकिक शक्तियों का स्वामी बन जाता है। चीनी समाज में यह मान्यता है कि रेड सेंड बोआ सांप को खाने से मनुष्य की सेक्स पावर में जबरदस्त इजाफा होता है और वह अकेले दम पर सैकड़ों महिलाओं को संतुष्ट कर सकता है। जबकि खाड़ी देशों में मान्यता है कि रेड सैंड बोआ सांप के मांस के सेवन से व्यक्ति की कठिन से भी कठिन बीमारी ठीक हो जाती है और वह हमेशा जवान बना रहता है। जबकि ये सारे अंधविश्वास तथ्य से परे हैं और इनका हकीकत से कोई लेना देना नहीं है।

बावजूद इसके रेड सैंड बोआ सांप का बड़ी मात्रा में श‍िकार किया जाता है, जिससे यह सांप विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है।