मानवेंद्र सिंह ने आज काँग्रेस जॉइन कर ली है।
और यह भी कहा जा रहा है कि उनका निर्णय सही नहीं है।
पर मैं इससे सहमत नहीं हूं ।
लोग यह भी सलाह देते हैं कि उन्हें कांग्रेस जॉइन नहीं करनी थी बल्कि निर्दलीय के रूप मे बीजेपी का विरोध करना चाहिए।
ऐसा कहने वाले लोग इस बात को मानते भी है कि समाज के स्वाभिमान की रक्षा के लिए और उसपर जो चोट हुई है उसके लिए बीजेपी का भरपूर विरोध किया जाना वर्तमान समय की आवश्यकता है।
अगर बीजेपी का भरपूर विरोध किया जाना समाज के लिए नितांत आवश्यक है तो फिर यह विरोध किस तरह से किया जावे यह बहुत बुद्धिमता पूर्ण तरीके से तय किया जाना चाहिए।
क्या कभी निर्दलीय रहकर बीजेपी के समाज विरोधी रुख का कड़ा प्रत्युत्तर दिया जा सकता है पहले हमें इस भी पर गहन रूप से विचार कर लेना चाहिए।
हमें इसके लिए अतीत में जाना पड़ेगा। राजस्थान में मूल रूप से कांग्रेस और बीजेपी दो ही पार्टियां मजबूत रही है। और तीसरे मोर्चे का अथवा निर्दलीय का कोई खास अस्तित्व अतीत में नहीं रहा है।
और ऐसा प्रयोग बहुत धैर्य मांगता है जोकि आज की राजनीति में संभव नहीं है। देवी सिंह जी भाटी ने सामाजिक न्याय मंच के माध्यम से यह प्रयोग करने की कोशिश की थी और वे विफल रहे।
उसका सबसे बुरा परिणाम यह रहा था कि बीजेपी में दोयम दर्जे के जनाधार विहीन राजपूत नेतृत्व को देवी सिंह जी भाटी पर प्राथमिकता मिल गई और देवी सिंह जी भाटी पार्टी में हाशिए पर चले गए।
आज जो हम राजपूत समाज की भाजपा में दुर्गति देखते हैं वह देवी सिंह जी भाटी के इसी पराभव की ही देन है। देवी सिंह जी भाटी राजपूत समाज के एक प्रखर समर्थक थे और खुले तौर पर पार्टी पर राजपूत समाज का को तवज्जो देते थे।उनका कद राजनीति में बहुत बड़ा था। और राजपूत समाज में उनका प्रभाव इतना गहरा था कि बीजेपी के संघ समर्थक और राजपूत विरोधी लोग उससे भयभीत थे।
यह लॉबी येन केन प्रकारेण चाहती थी कि बीजेपी का राजपूत नेतृत्व सदैव कमजोर और उनका चापलूस बना रहे। जिससे कि आर एस एस और गैर राजपूत व्यापारी वर्ग अपनी राजनीति और प्रभाव को बीजेपी में बनाए रखें। इसके साथ में ही बीजेपी में राजपूतों का बहुत बड़ा वोट वोट बैंक गुलामी की तरह उन से चिपका रहे।
देवी सिंह जी भाटी के सामाजिक न्याय मंच के गठन और तीसरे मोर्चे के रूप में लड़ने से जनाधार विहीन बीजेपी के नेताओं को यह अवसर हासिल हो गया और देवी सिंह जी भाटी का राजनीतिक कैरियर का सूरज अस्त हो गया और उनका राजनीतिक वजूद सदा सदा के लिए हाशिए पर चला गया।
इसका परिणाम समग्र राजपूत समाज को बुरी तरह से भोगना पड़ा। उसके बाद जो नेता राजपूत के रूप में समाज में प्रभावी रहे वे राजपूत समाज के प्रति जरा भी वफादार नहीं रहे हैं। उनकी राजनीति उनके स्वयं के कैरियर के प्रति ज्यादा वफादारी रख रही थी। और वे सिर्फ राजपूत कोटे से अपनी दावेदारियां पार्टी के समक्ष रखने के लिए समाज का उपयोग करना चाहते थे। और समाज के वोटों को एक मुश्त हासिल करने के बाद बीजेपी पार्टी के कारण मिलने वाले वोटों के योग से अपना राजनीतिक कैरियर कैरियर संवारना चाहते थे। ऐसे लोगों ने सदैव राजपूत समाज के हितों की अनदेखी की और यही वजह थी की 2008 से 2013 तक कांग्रेस के राज में भी राजपूत विपक्ष में ही रहा और 2013 में जब बीजेपी की सरकार आई तो यह चापलूस राजपूत नेता केवल अपने मंत्री पद और कैरियर को बचाने के लिए 5 साल तक बीजेपी की जी हुजूरी करते रहे।
इस बीच राजपूतों के साथ भयंकर अन्याय हुआ समाज को पूरी तरह से उपेक्षित रखा गया चाहे वह जसवंत सिंह जी की टिकट कटने का प्रकरण हो,चतर सिंह की हत्या का प्रकरण हो, आनंदपाल प्रकरण हो, आमेर के महल का प्रकरण हो, पद्मावती के अपमान का विषय हो और चाहे सामराउ प्रकरण हो सभी में हर तरीके से राजपूतों को अपमानित और प्रताड़ित किया गया।
इसकी एक ही वजह थी की देवी सिंह जी भाटी के हाशिये पर जाने के पश्चात पार्टी के दूसरे दर्जे के राजपूत नेताओं जिन्हें लोकप्रिय शब्दों में भाजपूत भी कहा जाता हैं, में इतना आत्मविश्वास ही नहीं था कि वे समाज का दर्द और पक्ष पार्टी के समक्ष कहीं भी रख सके।
उन्हें सदैव यह डर सताता रहा था कि कहीं वे पार्टी द्वारा शक्तिच्युत नहीं कर दिये जाए, क्योंकि भाजपूतों के पास जनाधार तो है नहीं।इसलिए इन सभी राजपूत नेता राजपूतों के साथ हुए घोर अन्याय और सामराऊ जैसे प्रकरण में भी भीरुता और कायरता प्रदर्शित करते हुए मौन ही धारण किये रहे।
अब जब यह सिद्ध हो गया की बीजेपी के इन्हीं चापलूस जनाधार विहीन राजपूत नेताओं की वजह से न केवल देवी सिंह जी भाटी जैसे राजपूत समाज समर्थक जन नेता का कद समाप्त हुआ बल्कि राजपूत समाज का राजनीतिक वजूद ही समाप्त होने की स्थिति में आ गया है, समाज को अब सोच समझ कर ही चलना चाहिए।
कांग्रेस के राज में भी राजपूत राजनीतिक शक्ति से दूर ही रहे ।
और उसके बाद जब बीजेपी का राज आया तो एक बार फिर 5 साल के लिए राजपूतों को केवल प्रताड़ना ही सहनी पड़ी।
अब इस समय जब राजपूत समाज अपने साथ हुए हुए घोर अन्याय और अत्याचार का बदला लेने के लिए एकजुट हो गया है तो सब लोगों को मिलकर इसमें संघर्ष करना चाहिए।
मगर ऐसे ही जनाधार विहीन लोग राजपूतों में एक प्रकार का कन्फ्यूजन क्रिएट करना चाहते हैं। यह लोग चाहते हैं कि राजपूत इस चुनाव में इतने बिखर जाएं की उनका वोटों के रूप में कोई स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं रहे और भविष्य में कोई पार्टी उनको जाति के रूप में तवज्जो नहीं दे।
ऐसी स्थिति में जो वर्तमान में बीजेपी में जनाधार विहीन राजपूत नेता है वे आने वाले समय में अपने कैरियर को चमकाते रहेंगे और पार्टी मे वरिष्ठ और राजपूत कोटे में उपलब्ध होने की वजह से ऊँचे पदों व लाभ को भोगते रहेंगे।
आम राजपूत मजबूर होकर जाति के नाम पर उनको वोट देता रहेगा। हमें इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए की अगर बीजेपी का विरोध ही करना है तो हमें वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।
अगर देवी सिंह जी भाटी जैसे नेतृत्व तीसरे मोर्चे के रूप में भारी पराजय प्राप्त करके अलग थलग हो सकते हैं तो आज तो कोई ऐसा राजपूत नेतृत्व ही नहीं है जो तीसरे मोर्चे के रूप में एक मजबूत शक्ति की स्थापना करते हुए सार्थक विकल्प उपलब्ध करवा सके।
हमारे पास केवल दो तरह के उपाय शेष रहते हैं एक अल्पकालिक दूसरा दीर्घकालिक! अल्पकालिक उपाय के रूप में राजपूत समाज को केवल एक उद्देश्य को ध्यान में रखना है।
और वह है बीजेपी को न भूल सकने वाली कड़ी पराजय देना। जिसको को प्राप्त करने के लिए तात्कालिक रूप से हमें बीजेपी विरोधी ताकतों को मजबूत बनाना होगा चाहे वे ताकतें अतीत में हमारे साथ खड़ी रही है अथवा नहीं!
दीर्घकालिक उपाय के रूप में तीसरे मोर्चे की बात सोची जा सकती है।
इसलिए मानवेंद्र सिंह का यह निर्णय व्यवहारिक दृष्टिकोण से श्रेष्ठ ही कहा जाएगा कि उन्होंने अपने विरोध को क्षीण नहीं होने दिया और जो बीजेपी विरोधी सबसे प्रमुख पार्टी थी उसमें शामिल हो गए।
अब वे अपनी शक्तियों को पूरी ताकत से बीजेपी को परास्त करने के लिए उपयोग में ला सकेंगे और यह राजपूत समाज के लिए भी श्रेष्ठ घटना है।
कांग्रेस ने भी अपनी मजबूरी की वजह से राजपूत समाज को महत्ता दी है। और यह कांग्रेस के इतिहास में पहली बार हो रहा है क्योंकि कांग्रेस अब यह मानने लगी है कि उसका मूल वोट बैंक में जो sc-st और जाट जाति है वह अपने सदस्यों की अंतर्निहित महत्वकांक्षाओं के चलते अब विभाजित हो चुकी है।
इन दोनों वर्गों के राजनेताओं की अति महत्वाकांक्षाओं के कारण यह लोग भाजपा कांग्रेस बसपा और अन्य पार्टियों में बंट चुके हैं। अतः केवल इन के भरोसे कांग्रेस सत्ता हासिल नहीं कर सकती है। इसलिए इसकी भरपाई के लिए उसे बीजेपी के आधार में सेंध लगानी जरूरी है। इसलिए राहुल गांधी ने मानवेंद्र सिंह को शामिल करके अपनी पार्टी मे राजपूत के रूप मे बहुत बड़ा जनाधार जोड दिया है।
फिलहाल यह कांग्रेस और राजपूतों दोनों के लिए विन विन सिचुएशन है। अब राजपूत समाज अगर बीजेपी के विरोध में वोट करता है और कांग्रेस को वोट देता है तो यह सीधा मैसेज जाएगा कि बीजेपी से राजपूतों की नाराजगी ने राजस्थान में सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वैसे भी राजपूत समाज कभी जातिवादी नहीं रहा है राजपूत समाज का हर व्यक्ति सभी समाजों से सामंजस्य स्थापित करके चलता है और समाज को नेतृत्व प्रदान करता है कांग्रेस के साथ जोड़ने के कारण समाज को यह अवसर भी मिल गया है।
यह भी कहा जा रहा है कि 2008 में कांग्रेस ने राजपूतों को नहीं अपनाया था तो अब स्थितियों में क्या भिन्नता आ गई है। तो मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं की 2008 में कांग्रेस ने राजपूतों का दामन नहीं थामा था और जाटों ने भी कांग्रेस में पूरी तरह से जुड़ाव साबित नहीं किया था इस कारण इस कारण कांग्रेस पूर्ण बहुमत नहीं ला सकी थी।
और 2013 के चुनाव में जब एंटी इनकंबेंसी सामने आई तो वह मात्र 21 सीटों में सिमट गई और यह सबक कांग्रेस ने अब लिया है कि उसे अगर राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपना अस्तित्व बचाए रखना है तो वह किसी जाति विशेष की पार्टी होकर अथवा जाति विशेष के दबाव में आकर अपना अस्तित्व नहीं बचा सकती है। उसको सदैव सभी जातियों और वर्गों को सही अर्थों में एक साथ लेकर 36 कौम की पार्टी बनकर ही अपना आधार बचाए रख सकती है।
यह भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस और राजपूत नेताओं के रूप में मानवेंद्र सिंह जी ने अपने अपने सबक ले लिए हैं और उसके अनुरूप ही दोनों एक दूसरे का साथ दे रहे हैं।
कुल मिलाकर मानवेंद्र सिंह जी का कांग्रेस में जाना मानवेंद्र सिंह जी के लिए और राजपूत समाज दोनों के लिए लाभदायक है और कांग्रेस पार्टी के लिए भी यह एक वरदान है जो कि सही अर्थों में कांग्रेस को 36 कौन की पार्टी बना सकता है।यह समझौता एक दूसरे के हित में है और अगर किसी ने भी इसका पालन सच्चे अर्थों में नहीं किया तो राजपूत समाज के पास अपने विकल्प खुले हैं।
राजपूतों की एकता ही राजपूतों को न्याय दिला सकती है और राजपूतों की राजनीतिक ताकत बढ़ा सकती है। समाज को चाहिए की वह एकजुट होकर बीजेपी को परास्त करने में जुट जाए।हमारा यही अल्पकालिक लक्ष्य है।
मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में शामिल होने से हमारे बीजेपी विरोध को बहुत बड़ा मंच मिला है हमें अब यह नहीं सोचना है की अतीत में हमें किस पार्टी ने कितना बुरा व्यवहार किया था सच्चाई यह है कि दोनों पार्टियों ने राजपूतों का शोषण किया है।
मगर वर्तमान में कांग्रेस पार्टी मजबूर है और इस स्थिति में है कि वह अपने अतीत की घटनाओं से सबक लेकर राजपूत समाज को अपने साथ जोड़े और उसके वंचित तबके के साथ न्याय करें। जबकि बीजेपी सत्ता की महत्वाकांक्षा में चूर है वह येन केन प्रकारेण हर हालत में अपनी सत्ता को बरकरार रखना चाहती है। उसके लिए वह अपने सिद्धांतों से और अपने आधारभूत वोट बैंक के हितों से समझौता कर रही है।
और तुष्टीकरण के नजरिए के साथ जाटों को और एससी-एसटी को आवश्यकता से अधिक महत्व देने की कोशिश कर रही है।बीजेपी यह मानकर चल रही है की सवर्ण वर्ग तो मजबूर है और राजपूत भी बीजेपी के अलावा कहीं जा ही नहीं सकते हैं।
अतः हम भी इस अवसर का फायदा उठाएं और बीजेपी को अपनी औकात दिखाएं। बीजेपी के हारते ही राजपूत वर्ग का महत्व राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ जाएगा और दोनों पार्टियां मजबूर होकर राजपूत हितों की पैरवी करेगी।
अगर कांग्रेस राजपूतों के साथ न्याय नहीं करेगी तो लोकसभा चुनाव में और उसके बाद आने वाले चुनाव में राजपूतों के विकल्प खुले रहेंगे।
आखिर समाज को भी ऐसे जनप्रतिनिधियों की आवश्यकता है जो समाज के साथ अन्याय और शोषण का प्रतिकार कर सकें और समाज के न्यायोचित हितों के लिए लड़ सके।न कि समाज को सीढ़ी बनाकर अपना राजनीतिक कैरियर और कद बनाने वाले क्रूर राजनेताओं की।
कुलमिलाकर मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में शामिल होने पर राजपूत समाज को परिपक्व प्रतिक्रिया देनी चाहिए और इस पर सकारात्मक रूप से सोचना चाहिए। यह समाज के लिए अपने अस्तित्व को पुनर्स्थापित करने का बहुत बड़ा अवसर है।
रही बात बीजेपी की तो उसे अपने अहंकार और राजपूतों के प्रति नीच दुराग्रहों की सजा मिलनी ही चाहिए।
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